भारतीय राजनीति में एक कहावत अब सच होती दिख रही है—”राजनीति में विचारधारा अब कपड़ों की तरह बदल दी जाती है।” यह कथन आज की परिस्थितियों में बिल्कुल सटीक बैठता है, जहां अनेक नेता बिना किसी स्पष्ट विचारधारा के, केवल स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से दलबदल दूसरे दल की ओर रुख कर रहे हैं।

भारतीय राजनीति में विचारधारा का ह्रास और अवसरवाद का बढ़ता प्रभाव एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। आज अधिकांश नेता किसी सिद्धांत या विचारधारा से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थ और सत्ता की लालसा से प्रेरित होते हैं। चुनावी मौसम आते ही दलबदल का सिलसिला शुरू हो जाता है, जिससे साफ पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र अवसरवादी राजनीति का शिकार हो चुका है।

विचारधारा की समाप्ति और हृदय परिवर्तन की प्रवृत्ति

आज के समय में ऐसे नेताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिनकी कोई स्थायी विचारधारा नहीं होती। वे जिस राजनीतिक दल में होते हैं, उसकी बातों का गुणगान करते हैं और जैसे ही परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं दिखतीं, दल बदलकर उसी पार्टी की निंदा करने लगते हैं। चुनावों के समय यह प्रवृत्ति और तेज हो जाती है, जब टिकट, क्षेत्र या सत्ता की लालसा में नेता अपनी वफादारी बदल देते हैं। ऐसे में यह मान लेना मुश्किल नहीं कि उनका कोई वैचारिक आधार रहा ही नहीं।

अवसरवाद की राजनीति

जैसे ही चुनावों की घोषणा होती है, वैसे ही नेताओं की भागमभाग शुरू हो जाती है—कोई पार्टी छोड़ रहा है, कोई पार्टी में शामिल हो रहा है। यह सिलसिला बताता है कि भारतीय लोकतंत्र अवसरवाद से कितना ग्रस्त हो गया है। एक समय था, जब राजनीतिक दल किसी वैचारिक पथ पर चलते थे, लेकिन आज वैचारिक दल गिनती के रह गए हैं। अधिकांश पार्टियाँ सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र बनकर रह गई हैं।

दलबदल के घिसे-पिटे तर्क

दलबदलू नेता हमेशा कुछ एक जैसे तर्क देते हैं—जाति-बिरादरी की अनदेखी, क्षेत्र की उपेक्षा, या पार्टी में सम्मान न मिलना। मगर सवाल यह है कि इन समस्याओं का अहसास उन्हें चुनाव की घोषणा के बाद ही क्यों होता है? क्या उन्होंने पहले कभी इन्हें पार्टी मंच पर उठाया? सच्चाई यह है कि ये तर्क महज़ परदा होते हैं; असली कारण होता है टिकट की गारंटी, क्षेत्रीय समीकरण या सत्ता का समीप दिखना।

  1. टिकट न मिलने का डर: जब कोई नेता अपने दल से टिकट नहीं पाता, तो वह दूसरे दल में चला जाता है।
  2. परिवारवाद और भाई-भतीजावाद: कई नेता चाहते हैं कि उनके परिवार के सदस्यों को भी टिकट मिले, और अगर ऐसा नहीं होता, तो वे दल छोड़ देते हैं।
  3. जनता का गुस्सा भांपकर पलायन: अगर कोई नेता महसूस करता है कि उसके क्षेत्र में उसकी छवि खराब हो चुकी है, तो वह दूसरे क्षेत्र या दल की तरफ भागता है।

निजी स्वार्थ और दलबदल

दलबदल प्रायः निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए होता है। किसी को टिकट नहीं मिल रहा होता, किसी को अपने रिश्तेदार के लिए टिकट चाहिए, और कोई अपने क्षेत्र में हार का डर देख कर सुरक्षित सीट की तलाश में होता है। ऐसे नेता जिस पार्टी में जाते हैं, उसकी विचारधारा को सिर माथे लेते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक उसी विचारधारा की आलोचना कर रहे होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि कई बार मतदाता भी इनके झांसे में आ जाते हैं।

दलबदल करने वाले नेताओं के पास हमेशा एक जैसे तर्क होते हैं:

  • “मेरी जाति/समुदाय की उपेक्षा हुई!”
  • “मेरे क्षेत्र का विकास नहीं हुआ!”
  • “पार्टी में भ्रष्टाचार है!”

लेकिन ये नेता कभी यह नहीं बताते कि:

  • जिन मुद्दों को वे अब उठा रहे हैं, उन्हें पहले पार्टी के भीतर क्यों नहीं उठाया?
  • चुनाव की घोषणा के बाद ही उन्हें ये समस्याएं क्यों दिखाई देती हैं?

सच्चाई यह है कि दलबदल का एकमात्र उद्देश्य निजी स्वार्थ होता है।

दलबदल के दुष्परिणाम

  1. पार्टियों में अंदरूनी कलह: जब कोई नेता नया दल ज्वाइन करता है, तो उस दल के मौजूदा नेताओं को झटका लगता है। कई बार यह विद्रोह का कारण बनता है।
  2. जनता का भरोसा टूटना: मतदाताओं का विश्वास राजनीतिक व्यवस्था से कम होता है, क्योंकि नेता बार-बार अपनी विचारधारा बदलते हैं।
  3. अयोग्य उम्मीदवारों को बढ़ावा: अक्सर दलबदल करने वाले नेता सिर्फ सत्ता के लालची होते हैं, न कि जनसेवक।

प्रत्याशी चयन की अपारदर्शिता

राजनीतिक दलों के प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया अक्सर अपारदर्शी होती है। कोई ठोस तंत्र नहीं है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि जो प्रत्याशी चयनित हो रहा है, वह जनता की पसंद है या नहीं। कुछ दल जरूर यह दावा करते हैं कि वे सर्वेक्षण कराते हैं, लेकिन इन सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता संदिग्ध है। वास्तव में यदि क्षेत्रीय जनता या पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी चयन में निर्णायक भूमिका दी जाए, तो गुटबाजी, भीतरघात और विद्रोह जैसी समस्याओं पर लगाम लगाई जा सकती है।

अमेरिका की प्राइमरी प्रणाली से सीख

भारत में भी अमेरिका जैसी प्राइमरी प्रणाली लागू की जा सकती है, जहां पार्टी कार्यकर्ता या पंजीकृत मतदाता प्राथमिक चुनाव में प्रत्याशी का चयन करते हैं। इससे योग्य और लोकप्रिय नेता सामने आएंगे और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी।

चुनाव आयोग को और अधिकार देने की आवश्यकता

वर्तमान में चुनाव आयोग के पास दलबदल या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को रोकने का कोई सशक्त अधिकार नहीं है। आयोग केवल आचार संहिता का पालन करवा सकता है, लेकिन यह अपर्याप्त है। आवश्यकता है कि उसे दलबदल पर रोक लगाने, आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को अयोग्य ठहराने और चुनावों में पैसे के इस्तेमाल पर प्रभावी नियंत्रण जैसे अधिकार दिए जाएं। यह लोकतंत्र की गरिमा को बचाने के लिए अनिवार्य है।

लोकतंत्र की रक्षा का समय

यदि राजनीतिक दल और चुनाव आयोग इन समस्याओं की अनदेखी करते रहे, तो धीरे-धीरे भारतीय राजनीति का स्तर और भी गिरता जाएगा। राजनीति का उद्देश्य जनसेवा से हटकर निजी लाभ बन जाएगा। यह लोकतंत्र की आत्मा के लिए खतरा है।

राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे सुधार की पहल करें, प्रत्याशियों के चयन में पारदर्शिता लाएं और दलबदल जैसे कृत्यों पर कठोर रुख अपनाएं। मतदाताओं को भी सतर्क होना होगा और विचारधारा विहीन नेताओं को सबक सिखाना होगा। क्योंकि लोकतंत्र केवल चुनावों का नाम नहीं, यह जनता की चेतना और विवेक से संचालित व्यवस्था है।

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